पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने एक बार फिर अपने बयानबाज़ी के तेवर तीखे कर दिए हैं और काबुल-नई दिल्ली-इस्लामाबाद त्रिकोण में तनाव की आंच बढ़ती दिख रही है। जीओ न्यूज़ के कार्यक्रम में आसिफ ने अफगान नेतृत्व पर सख़्त आरोप लगाए और कहा कि यदि अफगान पक्ष ने इस्लामाबाद की ओर कोई हमला किया तो उसका जवाब “पचास गुना” ज़्यादा तीव्र होगा — एक ऐसा बयान जिसने क्षेत्रीय कूटनीति को और जटिल बना दिया है।
आसिफ ने अफगान वार्ताकारों की तारीफ़ करते हुए भी यह दावा दोहराया कि वास्तविक नियंत्रण दिल्ली के हाथों में है और काबुल सिर्फ़ किसी बाहरी ताकत की कठपुतली बन कर काम कर रहा है। उनका यह आरोप उस समय आया है जब इस्तांबुल में पाकिस्तान-आफगानिस्तान शांति वार्ता लगभग असफल मानी जा रही है और दोनों तरफ़ से एक-दूसरे पर रिश्वतों व दख़ल के आरोप लगते रहे हैं।
उनके शब्दों में न सिर्फ़ राजनयिक शब्दबाण बल्कि सैन्य चेतावनी भी झलकती है। आसिफ ने कहा कि पिछले चार सालों से काबुल ने “आतंकवादियों” का इस्तेमाल करके पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कारवाइयों की अनुमति दी है और यदि सीमा के उस पार से कोई भी शाघ़ी प्यास भड़की, तो पाकिस्तान उसे मुंहतोड़ जवाब देने से पीछे नहीं हटेगा। इस तरह के कड़े संकेतों ने सीमावर्ती इलाकों में पहले से मौजूद तनाव को और बढ़ा दिया है।
इस्तांबुल वार्ता के विफल रहने की सूचना और अफगान पक्ष द्वारा ड्रोन संचालन पर पाकिस्तान के साथ की गई समझौतों की खुलेआम स्वीकारोक्ति ने भी मामला जटिल बना दिया है। इन घटनाक्रमों ने दोनों देशों के बीच भरोसे की कमी को बयां किया है और स्थानीय निगरानी रख रहे विशेषज्ञों का तर्क है कि ऐसे समय में भाषा नर्म रखने की ज़रूरत थी, परन्तु राजनैतिक हितों ने इस संभावना को कम कर दिया है।
विश्लेषक बताते हैं कि आसिफ के बयान एक बड़े राजनीतिक पृष्ठभूमि से आते हैं — भारत-पाकिस्तान रिश्ते, अफ़गानिस्तान की आंतरिक राजनीति और क्षेत्रीय सुरक्षा की चुनौतियाँ इन तकरारों को और भड़का देती हैं। जहाँ पाकिस्तान काबुल को दिल्ली का एजेंट बताकर अपना गुस्सा व्यक्त कर रहा है, वहीं अफगान और भारतीय पक्ष इस तरह के आरोपों को निराधार या राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित करार देते रहे हैं। सीमा पार हिंसा के हालिया आंकड़े और मिलिट्री झड़पें भी इस असंतुलन को दर्शाती हैं।
अंततः इस बयानबाज़ी का सबसे बड़ा ख़तरा क्षेत्रीय अस्थिरता है। यदि कूटनीतिक चैनल कामयाब न हुए और जल्द बहसों को काबू में नहीं लाया गया तो छोटे-छोटे उभार भी सैन्य टकराव में बदल सकते हैं — और तब न केवल तीनों देशों की सुरक्षा प्रभावित होगी बल्कि अफ़गान सीमा पार के नागरिकों का जीवन भी संकट में आ सकता है। क्षेत्रीय शांति चाहने वालों के लिए अब चुनौतियाँ साफ़ हैं: तीखे रुख़ों को नरम करना और वार्ता की बची हुई कसरतों को फिर से जीवित करना।